मंगलवार, 2 जून 2020

आबिद आलमी की गजल


आबिद आलमी की एक गजल
अजनबी आबिद आलमी की एक गजल
अजनबी समझा मुझे उसने कहा अच्छा बहुत
मेरे काम आया मेरा बिगड़ा हुआ हुलिया बहुत
उसको अपने घर की दीवारें निगल कर सो गईं
उसका  पहरेदार उसके दर पे गो जागा  बहुत
पहले हिचकोले में ही बस गर्क -ए -दरिया हो गया
नाखुदा साहिल पे तो हुशियार लगता था बहुत
इसकी बुनियादें हैं इन्सा के लहू पर , देखना
ये मकां अब आदमी का खून मांगेगा बहुत
शहर में हर आते जाते शख्स से रस्ता न पूछ
अजनबी लोगों के लुटने का है यां खदशा बहुत
आलमों को नापने की धुन मेरे काम आ गई
रास्तों पर दूरियों का वरना गलबा था बहुत
शहर में जो इक  मकां है सब मकानों से बुलन्द
जलजला आने पे  निकलेगा वही बोदा बहुत
मेरा दिल रखने को खुलकर मुस्कराए वो , मगर
घर के इक गोशे में तन्हा बैठकर रोया बहुत
आलमी मण्डी में हम तोले गए मिट्टी के भाव
हम तो सोना हैं , हमें ये बहम रहता था बहुत
एक -इक दिल में हजारों आरजुएं दफन हैं
जिन्दा रहने को है गोया आदमी मरता बहुत
उसने अपनी चारदीवारी को ऊँचा कर लिया
मेरा घर उसकी निगाहों में खटकता था बहुत
टीला टीला रास्ते में दिल की कैफियत न पूछ
दो कदम है या तो मंजिल ,या है फिर रस्ता  बहुत





आबिद आलमी की एक और गजल
खदशों की नगरी में जिन्दा रहने का गुर जान लिया है
यानी खुद को चलती फिरती लाशें हमने मान लिया है
उसके खफा रहने का बाईस कोई हाथ नहीं आ पाया
अपने अहसासात का आलम सारा हमने छान लिया है
उसको सहा है सदियों यानी अब कोई बहरूप भरे वो
उसके हर अंदाज को हमने अच्छी तरह पहचान लिया है
आने वाली नस्लें बरसों इस सौदे पर नाज करेंगी
हमने समंदर से किश्ती के बदले में तूफ़ान लिया है
बाद -ए -सबा की खामोशी अब तोड़ नहीं पायेगा कोई
रात को बस्ती क्यों चीखी थी इसने अब ये जान लिया है
मुमकिन है अब इसका दमन भर दे दरिया की तुगयानी
आबिद अब सहरा का रस्ता बादल ने पहचान लिया है

अल्फाज से
आबिद आलमी जी की एक ग़ज़ल
नगर में सुनना सुनाना अगर कभी होगा
हमारा जिक्र यकीनन गली-गली होगा
मिटा दो राहों की उलझन और इक डगर ले लो
य' मंजिलों का सफर य' तय तभी होगा
इक एक दर्द से इतना बिला झिझक कह दो
हमारे दिल में उठेगा जो दायमी होगा
नगर नगर का मुकद्दर है लिख दिया मैंने
कि जलजलों का गुजर अब गली-गली होगा
जो लिखते फिरते हैं एक-इक मकां पे नाम अपना
उन्हें बता दो कि एक दिन हिसाब भी होगा
हमें भी वक्त जरूरत समझता है अपनी
कि एक दौर तो 'आबिद' हमारा भी होगा

अल्फ़ाज़
आबिद आलमी
सोये तलातुमों को जगाने का वक्त है
लहरों के साथ खुद को बहाने का वक्त है
है जलजलों के दौर की आमद नगर नगर
ज़ेर-ओ ज़बर का फर्क मिटाने का वक्त है
राहों पे जम गई हैं कई बर्फ की तहें
पैरों को आग मल के चलाने का वक्त है
अगला सफर है यारो, अँधेरों के दश्त का
सूरज कदम कदम पे उगाने का वक्त है
टकरा के बार बार नजर इस से मर न जाये
अब राह के फ़लक को हटाने का वक्त है
यल्गार कर रहे हैं अँधेरों के गौल अब
'आबिद' यही चराग जलाने का वक्त है
तलातुम -तूफान, जलजला- भूकम्प, ज़ेर ओ जबर- संसार की ऊंच नीच, फ़लक-आकाश, दश्त-जंगल, यल्गार- आक्रमण, गौल-दुख, रंज,